Friday, September 20, 2019

भारत-पाकिस्तान ने पहले भी बंद किए हैं हवाई क्षेत्र

इस साल फ़रवरी महीने में हुए पुलवामा हमले और बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद भी जब भारत और पाकिस्तान में तनाव हुआ था तब दोनों देशों ने एक-दूसरे के लिए अपने-अपने हवाई क्षेत्र बंद कर दिए थे.
हालात सामान्य होने पर भारत ने तो पहले अपना एयरस्पेस खोल दिया था लेकिन पाकिस्तान ने काफ़ी वक़्त बाद, करीब पांच-छह महीने तक भारत के लिए अपना हवाई क्षेत्र बंद रखा था.
इसका नतीजा ये हुआ था कि भारत से अमरीका और यूरोप जाने वाले विमानों की यात्रा अवधि बढ़ गई थी. इसकी वजह से कई एयरलाइंस को अपनी सेवाओं में बदलाव करना पड़ा.
मिसाल के तौर पर अमरीकन कैरियर युनाइटेड ने अपनी नॉनस्टॉप सेवा बंद कर दी थी, एयर कनाडा ने अपनी फ़्लाइट बंद कर दी थी. इसके अलावा इंडिगो को अपनी दिल्ली से इस्तांबुल (तुर्की) की नॉनस्टॉप फ़्लाइट को रोकना पड़ा.
2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद वाजपेयी सरकार के दौरान भी भारत और पाकिस्तान ने एक-दूसरे के लिए अपने हवाई क्षेत्र बंद कर दिए थे. तब चार-पांच महीने के बाद ये वायुक्षेत्र खोले गए थे.
9/11 हमले के बाद अमरीका ने अपना पूरा हवाई क्षेत्र बंद कर दिया था. इसका नतीजा ये हुआ कि किसी भी दूसरे देश का कोई भी विमान अमरीका के एयरस्पेस में नहीं जा सका.
इसके अलावा दो देशों के बीच की युद्ध की स्थिति में भी वायुक्षेत्र बंद कर दिए जाते हैं.
अश्विनी फड़नीस और जितेंद्र भार्गव दोनों इसका जवाब 'नहीं' में देते हैं.
जितेंद्र भार्गव कहते हैं कि ऐसा कोई फ़ोरम या मंच नहीं है जहां भारत पाकिस्तान की शिकायत कर सके या उसके फ़ैसले को चुनौती दे सके. ज़्यादा से ज़्यादा भारत जो कर सकता है वो है जवाबी कार्रवाई, यानी पाकिस्तान के लिए अपना एयरस्पेस भी बंद करना.
अश्विनी फड़नीस कहते हैं, "आम तौर पर वीवीआईपी विमानों को आने-जाने की अनुमति मिल जाती है लेकिन चूंकि अभी भारत-पाकिस्तान में तनाव गहरे हैं इसलिए पाकिस्तान ने राष्ट्रपति कोविंद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विमानों को अपने हवाई क्षेत्र से गुज़रने की अनुमति नहीं दी."
इसके जवाब में फड़नीस कहते हैं, "ऐसा नहीं है. असल में ये फ़ैसले कूटनीतिक संकेत भर होते हैं. इनके ज़रिए एक देश दूसरे देश को ये संकेत देता है कि उसने सख़्त रुख़ अख़्तियार किया हुआ है. पाकिस्तान का ये फ़ैसला भी कुछ ऐसा ही है."
वायुक्षेत्र बंद करने के कूटनीतिक संकेत का प्रभाव भारत और पाकिस्तान में एयरलाइंस के कारोबार पर भी पड़ता है.
बालाकोट हमले के बाद जब भारत-पाकिस्तान ने अपने वायुक्षेत्र बंद किए तब इसका नुक़सान दोनों देशों को उठाना पड़ा था.
जितेंद्र भार्गव कहते हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के विमान को अपने वायुक्षेत्र से न गुज़रने देकर पाकिस्तान ने अपरिपक्वता का परिचय दिया है और भविष्य में उसे इसका नुक़सान ही होगा, फ़ायदा नहीं.
वो कहते हैं, ''अनुच्छेद-370 को ख़त्म किए जाने के भारत के फ़ैसले के बाद से ही पाकिस्तान इस मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने और दुनिया का कश्मीर मसले की ओर ध्यान खींचने की कोशिश कर रहा है. प्रधानमंत्री मोदी के लिए अपना एयरस्पेस बंद करना भी एक ऐसी ही कोशिश है.''
दूसरी तरफ़, अश्विनी फड़नीस का मानना है कि राष्ट्रपति कोविंद के विमान को पाकिस्तानी वायुक्षेत्र में प्रवेश की अनुमति न मिलने के बाद प्रधामंत्री मोदी के विमान के लिए ये अर्ज़ी पाकिस्तान को भेजनी ही नहीं चाहिए थी.
फड़नीस कहते हैं, "अगर जुलाई में प्रधानमंत्री बिश्केक जाने के लिए पाकिस्तानी वायुक्षेत्र छोड़कर ओमान और ईरान का वायुक्षेत्र चुनते हैं तो कुछ महीने बाद ही पाकिस्तानी एयरस्पेस में जाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? मुझे इसकी कोई वजह समझ नहीं आती."
इस साल जुलाई में पुलवामा हमले और बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद जारी तनाव को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी बिश्केक यात्रा में पाकिस्तानी वायुक्षेत्र से होकर नहीं गुजरे थे. ऐसा तब हुआ था जब पाकिस्तान ने उनके विमान के अपने वायुक्षेत्र में प्रवेश के लिए सहमति जता दी थी.
भारत के नागरिक उड्डयन मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने संसद में बताया था कि इसकी वजह से भारत को लगभग 300-400 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ था.
वहीं, पाकिस्तानी मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक़ भारतीय एयरस्पेस बंद होने के कारण पाकिस्तानी एयरलाइंस को कई बिलियन रुपयों का नुक़सान हुआ था.
भारत और पाकिस्तान यूरोप के लिए बेहद अहम 'गेटवे' हैं. दिन में लगभग 200-250 विमान यूरोप जाने के लिए भारत और पाकिस्तान के वायुक्षेत्र से होकर गुज़रना पड़ता है.
ऐसे में अगर हम अनुमान लगाएं कि इन सभी विमानों को यूरोप पहुंचने के लिए 40-45 मिनट ज़्यादा वक़्त लगाना पड़े तो एयरलाइन्स को कितना नुक़सान होगा और यात्रियों को कितनी असुविधा उठानी पड़ेगी.
फड़नीस बताते हैं कि एयरस्पेस को बंद रखने की कोई अधिकतम समयसीमा या अवधि नहीं होती.
वो कहते हैं, "अमूमन ये पारस्परिक होता है. अगर एक देश पहल करके अपना वायुक्षेत्र खोलता है तो सामान्य तौर पर दूसरा भी ऐसा ही करता है. मगर हमेशा ऐसा ही हो, ऐसा भी ज़रूरी नहीं है. जैसे कि बालाकोट हमले के बाद भारत ने पहले अपना वायुक्षेत्र खोल दिया था लेकिन पाकिस्तान ने ऐसा करने में काफ़ी वक़्त लिया."

Tuesday, August 27, 2019

चर्चा में रहे लोगों से बातचीत पर आधारित साप्ताहिक कार्यक्रम

मुक्तदर ख़ान कहते हैं, "पिछले 40-50 सालों में पाकिस्तान की लाख कोशिशों के बावजूद कश्मीर का मुद्दा कुर्दिस्तान या तिब्बत की तरह अंतरराष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाया. जबकि उसने संयुक्त राष्ट्र और ओआईसी के फ़ोरम पर जब जब मौका मिला इस मुद्दे को उठाया. लेकिन पहली बार है कि पश्चिम में इस मुद्दे पर मीडिया में काफ़ी कवरेज हो रहा है."
वो कहते हैं, "एक तरह से कह सकते हैं कि अंतरराष्ट्रीयकरण का पाकिस्तान का मुद्दा आगे बढ़ गया है लेकिन वो इसलिए हुआ क्योंकि भारत सरकार ने कश्मीर को लेकर बहुत बड़ा कदम उठाया."
उनके अनुसार, हालांकि पाकिस्तान का कूटनीतिक स्तर पर हार हो रही है क्योंकि पिछले दो दिन में ही दे अरब देशों संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने मोदी को सम्मानित किया और फिर ट्रंप ने भी मोदी का समर्थन किया.
वो कहते हैं कि 'सबसे बड़ा संकेत तो ये है कि फ्रांस में जी7 की बैठक के दौरान ट्रंप भी हैं और मोदी भी हैं, जबकि न तो वहां पाकिस्तान है और न इमरान ख़ान.'
मुक्तदर ख़ान का कहना है कि भारत भले ही अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कह रहा है कि आपसी मसलों को द्विपक्षीय तरीके से हल कर लिया जाएगा लेकिन कश्मीर के मसले पर उसने बिल्कुल उलट किया है.
वो कहते हैं, "जम्मू कश्मीर के मामले में बिना वहां की जनता से पूछे, बिना पाकिस्तान से वार्ता किये एकतरफ़ा फैसला भारत ने ले लिया और साथ ही द्वीपक्षीय वार्ता के ज़रिए मामलों को हल करने की बात भी की जा रही है."
उनके अनुसार, अगर भारत जिस तरह कश्मीर में कड़ाई कर रहा है, अगर उसी तरह करता रहा तो दुनिया में फ़लस्तीन की तरह ये मुद्दा भी सिविल सोसायटी उठाने लगे. इसका दूसरा पहलू ये है कि अगर कश्मीरी जनता को लगेगा कि प्रदर्शनों से भारत की बदनामी बढ़ रही है तो वो इसे और बढ़ा देंगे.'
प्रोफ़ेसर मुक्तदर ख़ान कहते हैं कि भारत को चाहिए कि वो कश्मीर में इतने अच्छे हालात बनाए कि वहां के लोग खुशी खुशी भारत के साथ आना चाहें.
लेकिन हाल के दिनों में जो हालात बने हैं उससे लगता है कि इस फैसले की गूंज आने वाले काफी समय तक सुनाई देगी.
अनुच्छेद-370 को निष्प्रभावी बनाने के भारत सरकार के फ़ैसले के तीन सप्ताह बीतने के बाद भी भारत प्रशासित कश्मीर में लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.
भारत प्रशासित कश्मीर में जो पाबंदियां लगाई गई हैं उनमें बुनियादी तौर पर तीन बात हैं- इंटरनेट की सहूलियत बंद है, लैंडलाइन कुछ इलाकों में ठीक तौर पर काम कर रहे हैं, लेकिन मोबाइल नेटवर्क पूरी तरह ठप्प है.
इन सबके चलते सबसे बड़ी चुनौती अस्पताल और स्वास्थ्य सुविधाओं को उठानी पड़ रही है.
डॉक्टरों को मुश्किलें पेश आ रही हैं. वे इंटरनेट पर रिसर्च नहीं कर सकते हैं और बाहर के डॉक्टरों से उनका संपर्क कट गया है. ऐसे में वे अपने मरीज़ों का ठीक ढंग से इलाज़ नहीं कर पा रहे हैं.
ऐसे ही एक डॉक्टर हैं डॉक्टर उमर. उमर इलाके में इंटरनेट की सुविधा बंद होने के विरोध में श्रीनगर के लाल चौक पर सोमवार को विरोध प्रदर्शन पर बै
वैसे इंटरनेट बंद होने से इलाके में किसी मरीज की मौत की ख़बर नहीं है.
डॉक्टर उमर बताते हैं, "अभी तो मेरी जानकारी में भी किसी की मौत की ख़बर नहीं है, लेकिन हफ्ते में जिसको तीन डायलिसिस चाहिए अगर उसको एक डायलिसिस मिलेगा तो मरीज़ की मौत हो सकती है."
ठे. वे इंटरनेट सुविधा बहाल करने की गुजारिश के लिए इस प्रदर्शन पर बैठे.
इस दौरान उमर ने बताया, "ये प्रोटेस्ट नहीं है, रिक्वेस्ट है. यह मानवीय संकट बन सकता है. पूरा हेल्थ केयर सिस्टम प्रभावित हो सकता है. प्राइवेट और सरकारी अस्पताल में हम आयुष्मान भारत योजना का लाभ ग़रीब मरीजों को मुफ़्त दे सकते हैं. लेकिन इंटरनेट और फोन लाइन की कनेक्टिविटी नहीं होने के चलते हम मरीजों की मदद नहीं कर पाए हैं. वे अपने ख़र्चे पर दवाईयां ख़रीद रहे हैं, ये हम देख रहे हैं."
हालांकि सरकार दावा कर रही है, कश्मीर में दवाईयों का स्टॉक पूरा है, एंबुलेसें चल रही है, अस्पताल खुले हुए हैं. ऐसे में इंटरनेट बंद होने से स्वास्थ्य सुविधाओं पर क्या असर पड़ रहा है, ये पूछे जाने पर डॉक्टर उमर बताते हैं, "हेल्थ इंश्यूरेंस स्कीम या आयुष्मान भारत इंटरनेट बेस्ड हैं. मरीज अपना स्मार्ट कार्ड लेकर आते हैं. उसे स्वाइप करते हैं, इसके बाद ही हम उन्हें देखते हैं, दवाईयां देते हैं."

Tuesday, May 21, 2019

ओपेक पर लगाम कसने चीन-भारत आएंगे साथ?

भारत-चीन 'ऑयल बायर्स क्लब' के गठन की संभावनाएं बन रही हैं जो ग्लोबल एनर्जी मार्केट की गतिविधियों को बदल सकते हैं.
भारत, चीन समेत आठ देशों को ईरान से कच्चे तेल के आयात के लिए मिली छह महीने की छूट दो मई को ख़त्म होने के बाद हाल के दिनों में इस प्रस्ताव पर हलचलें तेज़ हुई हैं.
यदि इस क्लब का गठन हो गया तो दोनों देश एक साथ तेल की क़ीमत के मोलभाव के साथ ही ओपेक के प्रभाव को कम कर सकेंगे. ग़ौरतलब है कि ओपेक दुनिया के 40 फ़ीसदी तेलों को नियंत्रित करता है.
ओपेक के तेल उत्पादन पर लगाए गए प्रतिबंधों से तेल की क़ीमतें बढ़ी हैं, जिससे भारत और चीन दोनों की अर्थव्यवस्था को नुक़सान पहुंचा है. दोनों देशों में पेट्रोलियम उत्पाद मुख्यतः आयात पर ही निर्भर हैं.
लेकिन सवाल उठता है कि क्या ये दोनों एशियाई देश साथ काम करने के लिए एक दूसरे के बीच बने अविश्वास से ऊपर उठ सकेंगे. इतिहास गवाह है कि दोनों देशों ने बढ़ती ऊर्जा की अपनी मांगों को पूरा करने के लिए दुनिया के कई तेल और गैस भंडारों में हिस्सा पाने की होड़ में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा की है.
'ऑयल बायर्स क्लब' गठित करने का विचार काफ़ी पहले से चल रहा है- सबसे पहले यह 2005 में सामने आया था- लेकिन इस पर बहुत आगे बात नहीं बन सकी.
2005 में, भारत के तत्कालीन तेल मंत्री मणिशंकर अय्यर ने इसका प्रस्ताव दिया था लेकिन यह दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों की पेचीदगी में फंस कर रह गया, जैसा की चीन की राष्ट्रीय दैनिक ग्लोबल टाइम्स ने 2018 में बताया था.
भारत ने 2014 में फिर एक बार इस तरह का क्लब बनाने की कोशिश की लेकिन उस पर भी बातें बहुत आगे नहीं बढ़ीं.
नाम नहीं बताने की शर्त पर एक भारतीय अधिकारी ने 26 अप्रैल को लाइवमिंट वेबसाइट को बताया, "हालांकि, हमने (भारत ने) पहले भी प्रयास किए थे, लेकिन हमने पाया कि ऐसी किसी भी व्यवस्था को बनाने में बहुत सारी खींचतान है क्योंकि कुछ देश हैं जो इस समूह के गठन के ख़िलाफ़ हैं."
एक बार फिर इस प्रयास को बल मिला जब भारत के वर्तमान पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने बीते वर्ष इसे पुनर्जीवित करने का संकेत दिया, यहां तक कि उन्होंने इसमें जापान और दक्षिण कोरिया को शामिल करने का भी सुझाव दिया.
यह उल्लेख करते हुए कि एशियाई देशों को तेल ख़रीदने के लिए ओपेक को लागत से अधिक चुकाना पड़ता है, धर्मेंद्र प्रधान ने अप्रैल 2018 में कहा था कि "आखिर सबसे बड़े उपभोक्ता इसके लिए अधिक पैसे क्यों खर्च करें. आख़िर क्यों एशियन प्रीमियम के नाम पर इन देशों को तेल की अधिक क़ीमतें चुकानी पड़ती हैं. सभी चार प्रमुख एशियाई अर्थव्यवस्थाओं को साथ आना चाहिए."
यह मुद्दा लंबे समय से एशियाई ख़रीदारों के लिए असंतोष का कारण रहा है जो इसे भेदभावपूर्ण कीमत तय करने के रूप में देखते हैं.
तब से, इस तरह की व्यवस्था की लॉजिस्टिक पर काम करने के लिए भारतीय और चीनी अधिकारी एक-दूसरे देशों में कई यात्राएं कर चुके हैं.
मार्च में चीन के नेशनल एनर्जी एडमिनिस्ट्रेशन के उप-प्रमुख ली फेनरॉन्ग के भारत दौरे के बाद दोनों पक्षों ने तेल-गैस पर एक संयुक्त कार्यदल बनाया, जल्द ही इसकी पहली बैठक होने की उम्मीद है.

Wednesday, January 9, 2019

بعثة أبولو 8 أثّرت على نظرتنا إلى كوكب الأرض ومكاننا في الكون

ويقول بورمان: "لا أظن أن جميع الكتب التي درستها في حياتي قد تؤهلني للعيش على سطح القمر بطبيعته القاسية. فإن سطح القمر وعر إلى حد يستعصي على التصديق. رأيت سطحه مليئا بالحفر وفوهات البراكين وبقايا حممها. ولكنه كان مشهدا مثيرا لعالم مختلف".
ولم يندهش الطاقم من منظر القمر فحسب، بل بعد مرور 75 ساعة و48 دقيقة من انطلاق البعثة، لمح أندراس من القمر زرقة الأرض وهي ترتفع فوق الأفق، وفتش في كل مكان عن فيلم ملون لالتقاط المشهد الرائع.
يقول بورمان: "كان التناقض بين القمر الكئيب وكوكب الأرض الأزرق البديع آخاذا، ولاحظنا أن كوكب الأرض هو الجرم الوحيد الملون في الكون بأكمله. يمكنك أن ترى الغيوم البيضاء والقارات بلونها الوردي الضارب إلى البني. كم نحن محظوظون بالعيش على ظهر هذا الكوكب".
وفجأة تحولت البعثة من اختبار خطير لبراعة البشر التكنولوجية وشجاعة رواد الفضاء، إلى تجربة روحانية أثارت مشاعر طاقم البعثة. وبينما لم تُنشر صورة ظهور الأرض إلا بعد عودة طاقم أبولو 8 إلى الأرض، فإن الطاقم أعد هدية أخرى لسكان كوكب الأرض احتفالا بعيد الميلاد المجيد في عام 1968.
تقول موير هارموني: "قبل انطلاق البعثة، قال مسؤول العلاقات العامة بوكالة ناسا لبورمان إنهم يتوقعون أن يتابع البث التليفزيوني من مدار القمر عشية عيد الميلاد نحو مليار شخص، ما يعادل ربع سكان العالم، وهذا يفوق عدد مستمعي أي صوت بشري آخر على مر التاريخ. وأخبره أن يعدّ كلمة مناسبة لإلقائها أمام جمهور المتابعين."
ويقول بورمان: "هذه لحظة من اللحظات الفارقة في تاريخ أي بلد ينعم بالديمقراطية. تخيل لو كان السوفييت مكاننا لكنا تحدثنا عن فضل لينين وستالين، ولكن في المقابل قيل لنا أن نختار كلمة مناسبة وحسب".
إلا أن إعداد هذه "الكلمة المناسبة" لم يكن بالأمر الهين. ويقول بورمان: "حاول ثلاثتنا بمساعدة زوجاتنا التفكير في أي شيء مناسب لنلقيه على مسامع المتابعين، ولم نتوصل لشيء".
ولجأ بورمان إلى أحد أصدقائه، الذي استعان بدوره بمراسل حربي متقاعد يُدعى جو لايتون، ويقول بورمان: "على حد علمي، سهر لايتون الليل بأكمله وهو يكتب كلمات على الورق ثم لا يلبث أن يجعّدها ويلقيها على الأرض، وعندما رأته زوجته، التي شاركت سابقا في صفوف المقاومة الفرنسية في الحرب العالمية الثانية، اقترحت عليه أن يبدأ من البداية".
وعند بدء التصوير، أخذت المركبة الفضائية تقترب من شروق الشمس على القمر عشية عيد الميلاد (بتوقيت الولايات المتحدة الأمريكية)، وشرع طاقم البعثة في قراءة سفر التكوين بالتناوب، واستهل أندرز بقراءة: "في البدء..."، واختتم بورمان قائلا: "نتمنى لكم ليلة سعيدة وحظا سعيدا وعيدا سعيدا، وبارككم الله جميعا، جميع البشر على كوكب الأرض الرائع".
ويقول بورمان: "كنا على قناعة حينها أن هذه الكلمة هي الأنسب لهذا المناسبة للتعبير عن الرهبة التي تملكتني، وحدي على الأقل، من مدى ضآلة حجمنا جميعا بالنسبة إلى الكون. فمن المستحيل أن يكون هذا الكون بضخامته ودقة تنظيمة قد خُلق من تلقاء نفسه من دون تدخل إلهي".
غير أن البعثة لم تنته بعد. ففي يوم عيد الميلاد شغّل بورمان المحرك مرة أخرى ليغادر مدار القمر. ويقول: "نفذنا عملية إشعال المحرك لدفع المركبة إلى المدار الأرضي عندما كنا على الجانب البعيد من القمر، فلو أخفقت عملية الإطلاق، لكنا الآن لا نزال ندور حول القمر".
ولم يفت مركز المراقبة والتحكم الأرضي في البعثة أن يرسل هدايا عيد الميلاد للطاقم على متن المركبة، والتي كانت عبارة عن وجبة من الديك الرومي المغطى بالصلصة البنية الكثيفة، وملفوفة في ورق هدايا لامع غير قابل للاشتعال.
ويقول بورمان: "وضع دِك سلايتون (رئيس الطاقم)، خلسة وسط أمتعته ثلاث جرعات صغيرة قوية المفعول من مشروب البراندي ولكننا لم نشربها، فقد خشيت أن أتحمل تبعات أي خطأ يقع دون أن ندري".
وفي يوم 27 ديسمبر/ كانون الأول، عاد الطاقم إلى الأرض، إذ هبطت المركبة بالقرب من الهدف في المحيط الهادئ. وقد كانت نهاية مثالية لبعثة ناجحة، أثبتت أن الرحلات الفضائية إلى القمر ستؤتي ثمارها.
وتقول موير هارموني: "لم تحقق بعثة أبولو 8 إنجازا علميا وهندسيا تاريخيا فحسب، إنما أسهمت أيضا في توسيع آفاق التجارب البشرية، وأثّرت على نظرتنا للأرض ومكان البشر في الكون".
أما الكولونيل بورمان، الذي لا يزال يحتفظ بروح المقاتل في الحرب الباردة رغم بلوغه 90 عاما، فيرى أن الإنجاز الحقيقي لآخر البعثات التي شارك فيها هو تقدُم أمريكا على غريمها الاتحاد السوفيتي في السباق نحو القمر.
ويقول بورمان: "لا أخفيك سرا أنني لم أكترث لإرث بعثة أبولو 8. فبعد أن نجحت بعثة أبولو 11 (في تنفيذ أول هبوط بشري على سطح القمر)، لم أعد أهتم ببرنامج أبولو، إذ شاركت من البداية في البرنامج لأقاتل في إحدى معارك الحرب الباردة، وقد انتصرنا".